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जश्न ए हुकूमत और बदहाल किसान

WORDS OF PK ROY
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जश्न ए हुकूमत और बदहाल किसान
प्रभात कुमार रॉय
नरेंद्र मोदी हुकूमत अपने सत्तानशीन होने के दो वर्ष पूर्ण कर लेने पर जबरदस्त जश्न में डूबी हुई है और अपनी उपलब्धियों का बढ़ाचढ़ा कर बखान करने में अत्यंत व्यस्त है. देश के बड़े बड़े कलाकार हुकूमत के इस जश्न में शिरकत करते हुए नजर आ रहे हैं. दूसरी तरफ रुख करें तो फिर करोड़ों की तादाद में हैरान, परेशान और बदहाल किसान हैं, जो कि देश के बड़े इलाके में सूखे की मार से त्रस्त है. देश के तकरीबन 40 करोड़ किसानों को विकराल सूखे का कहर झेलना पड़ रहा है. महाराष्ट्र की लासल मंडी से बहुत बुरी खबर आ रही है, जो बता रही है कि किसानों को प्याज की उपज का दाम इतना कम मिल रहा कि मजबूर होकर किसान प्याज कि खेती ही बंद कर दे. महाराष्ट्र की लासल मंडी में किसान की प्याज केवल ढेड़ रुपये में एक किलो के भाव से प्याज बिक रही है. अपने चुनाव मैनिफेस्टो में भाजापा ने वायदा किया था कि सत्तानशीन होने पर वह कृषि में किसान के लागत मूल्य का पचास फीसदी मुनाफा किसानों को दिलाएगी. क्या हुकूमत में विराजमान भाजापा के लीडरों को अपना चुनाव वायदा याद भी है अथवा काले धन वापसी के वायदे की तर्ज पर वो भी एक चुनावी जुमला ही उछाला गया था.
अबकी बार किसान विकास का हिस्सेदार का नारा पुरजोर तौर बुलंद करने वाली भाजापा करोड़ों किसानो के विकराल दुखों को विस्मृत करके आत्मशल्घा से परिपूर्ण सरकारी जश्नों में डूबी हुई है. किसान राष्ट्र की तरक्की में हिस्सदार होगा का वायदा ,कहां पर गुम होकर रह गया है. करोड़ों किसानों की तबाह बरबाद हालात को देखते हुए क्या हुकूमत को अपना जश्न तब तक के लिए स्थगित नहीं कर देना चाहिए था? जब तक कि किसानों के आर्थिक हालत कुछ सुधर नहीं जाते. रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था, क्या कुछ वैसा ही आचरण आज भारत के हुक्मरान अंजाम नहीं दे रहे हैं? इस वर्ष कृषि विकास की दर तकरीबन शून्य रही है, ऐसी विकट स्थिति भारत में विगत साठ वर्षों में तीसरी बार उत्पन्न हुई है. राष्ट्र की तकरीबन सत्तर फीसदी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है. आजादी के आगाज में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का लगभग 52 प्रतिशत योगदान था, जोकि इस वर्ष घटकर मात्र 13 फीसदी रह गया है. कृषि और किसान की तरक्की पर हुकूमतों द्वारा ध्यान कदापि केंद्रीत नहीं किया गया, फिर भी मेहनतकश किसान देश की इतनी विशाल आबादी का पेट भरता रहा है. भारत में हरित क्रांति का सृजनकर्ता दौर-ए-आजादी में खून के आंसूओं को बहाता रहा है.
आजकल हुकूमत के जश्न में देश की आर्थिक प्रगति को लेकर बहुत सारी बातें बनाई जा रही हैं. हमारे हुक्मरान सियासतदानों को देश की जीडीपी अथवा विकास दर की बड़ी फिक्र रहती है. इस ज्वलंत तथ्य से भला कौन इंकार कर सकता है कि देश का बखूबी आर्थिक विकास भी हो रहा है. हाँ! आर्थिक विकास सबसे अधिक हो रहा है हमारे वतन के सौ सबसे अमीर परिवारों का, जिनकी कुल संपदा विगत एक वर्ष में 15 लाख करोड़ से बढ़कर हो गई है तरीबन 23 लाख करोड़. देश में विगत वर्ष 64 अरबपति थे और इस वर्ष 75 अरबपति हो गए हैं. गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी काटने वालों की तादाद तक़रीबन 37 करोड़ से बढकर 40 करोड़ तक जा पंहुची है. वस्तुतः यही है देश की तरक्क़ी की असली तस्वीर. महात्मा गाँधी नाम लेते हुए राजनेता थकते नहीं हैं, वो यदि देश की धरा पर स्वयं आ जाए तो गहन दुख में डूब जाएगें. यह देखकर कि उनकी ग्राम स्वराज पुस्तक की चर्चा करने वाले वतन के गाँव कितने बदहाल हो चुके हैं. अन्नदाता कहलाने वाला किसान आज भी कितना बेबस और कंगाल और कर्ज में डूबा हुआ है. प्रेमचंद्र के होरी की किस्मत है कि बदलने का नाम ही नहीं लेती है. प्रेमचंद के दौर का बेहद परेशान किसान आत्महत्या तो कदाचित नहीं करता था, किंतु आर्थिक तरक्की के कथित दौर का किसान तो लाखों की तादाद में आत्मघात के लिए विवश रहा है. विगत पंद्रह साल में तीन लाख किसानों ने ख़ुदकुशी कर ली और प्रत्येक वर्ष इस संख्या में इज़ाफा हो रहा है.
खाद्यान्न वस्तुओं की मंहगाई को लेकर चारो तरफ हाहाकार मच हुआ है. कैसी विकट विडंबना है कि साठ प्रति रुपए किलो दाल बिकने पर स्यापा और हंगामा करने वाले भाजापाई तो दो सौ रुपए प्रति किलो दल बिकने पर जबरदस्त जश्न मना रहे हैं. वस्तुतः मंहगाई का संपूर्ण लाभ तो भाजापा समर्थक बिचौलियों और मुनाफाखोरों तिजोरियों में ही जा रहा है. जब उपज किसान के पास निहित होती है तो उसका भाव मिट्टी को मोल होता है, किंतु बिचौलियों और दलालों के हाथों में पंहुच जाने के पश्चात सोने के भाव बिकती है. देश का किसान तो कंगाल ही रहा, उसे आखिर क्या मिला। ऐसे मुनाफाख़ोरों का ही लूटमार का धन ही तो विदेशी बैंकों में जमा है. गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले 40 करोड़ भारतवासियों में सबसे अधिक लोग गांवों में ही निवास करते हैं और इनकी तादाद तकरीबन 30 करोड़ है. किसानों की भयावह उपेक्षा तो आजादी के दौर के शुरूआती काल से हो प्रारम्भ हो गई थी. किंतु यह उपेक्षा भाव आजादी को संपूर्ण दौर में निरंतर जारी रहा है.
सर्वविदित है कि 1857 के प्रथम स्‍वातंत्रय संग्राम से ही देश के किसानों ने आजादी हासिल करने के लिए सबसे अधिक कुर्बानियां अता की. फिर चाहे क्रांतिकारी सशस्‍त्र संघर्ष रहा अथवा महात्‍मा गॉंधी का अहिंसक सत्‍याग्रह, भारत के किसान ही वस्तुतः प्रत्‍येक राष्ट्रीय संघर्ष में अग्रणी रहे. प्रथम पंचवर्षीय योजना काल से लेकर सभी पंचवर्षीय योजना काल के दौर में और नीति आयोग के दौर में भी समस्‍त औद्योगिक प्रगति की सबसे अधिक कीमत देश के किसानों द्वारा ही चुकाई गई है. किसान की जमीन और उपज का दाम हुकूमत इसीलिए तय करती रही है, ताकि औद्योगिक विकास के लिए सस्‍ते से सस्‍ता बुनियादी ढांचा (इंफ्रास्‍ट्रचर) खडा़ किया जा सके. आर्थिक विकास की ओर देश ने तेजी के साथ कदम बढाए हैं, किंतु किसानों के हितों को बेरहमी रौंदते हुए. हुकूमत ने आर्थिक विकास के लिए स्‍पेशल इकानमिक जोन (सेज) तशकील करने की योजना पर अमल किया तो किसानों को ही निशाना बनाया गया. मनमाने तौर किसानों की जमीनों का मुआवजा तय करके उसे कॉरपोरेट कंपनियों के हवाले किया गया. कम्‍युनिस्‍टों की बंगाल सरकार रही हो, बीजेपी की गुजरात सरकार हो अथवा सपा अथवा बसपा की यूपी सरकार हो तथा केंद्र की यूपीए और एनडीए हुकूमतें, सभी के द्वारा किसानों के साथ एक सा ही निर्मम बरताव किया गया है. राजसत्‍ता के कॉरपोरेट चरित्र के समक्ष राजनीतिक दलों के अपने चरित्र बौने सिद्ध हुए हैं. भारत की राजसत्‍ता का चरित्र यक़ीनन कारपोरेट पूंजीवादी चरित्र बन चुका है, जिसते तहत किसान लाचार और बेबस होकर आर्थिक तौर पर हाशिए पर पड़ा हुआ है. जात-पांत की राजनीति ने किसान को कभी एकजुट होकर राजनीतिक शक्ति बनने नहीं दिया. जांत-पांत को पूर्णतः धता बताकर ही भारत का किसान एक आर्थिक वर्ग के तौर पर संगठित हो सकता है. किसान संगठित हुए बिना राजनीतिक शक्ति कदापि नहीं बन सकता है और एक राजनीतिक शक्ति के तौर निर्मित होकर ही किसान अपने लिए आर्थिक न्याय प्राप्त कर सकता है.
(समाप्त)

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