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1857 के स्वातंत्रय संग्राम की प्रबल प्रेरणा
10 मई 1857 को मेरठ कैंटोन्मैंट में सांध्य काल में बड़े पैमाने पर ब्रिटिश आर्मी के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह का परचम लहरा दिया था। इससे कुछ ही दिन 24 अप्रैल 1857 को पहले मेरठ कैंट में आयोजित कैवैलरी परेड में 90 में से 85 सैनिकों ने विवादस्पद ब्रिटिश कारतूसों को इस्तेमाल करने से पूर्णतः इंकार कर दिया था। 9 मई 1857 को इन 85 सैनिकों को मिलीट्री कमांड आर्डर की तामील न करने के संगीन इल्ज़ाम में मिलीट्री कोर्ट मार्शल के तहत दस साल की कैद-ए-बामशक़्त की सख्त सजा का ऐलान किया गया। 10 मई 1857 लोमहर्षक स्वातंत्रय संग्राम की शुरुआत से कुछ माह पूर्व 29 मार्च 1857 को 34 वीं रेजिमेंट के सिपाही मंगल पांडे ने बैरकपुर में विवास्पद कारतूसों का इस्तेमाल करने से इंकार किया और ब्रिटिश मिलीटरी आफीसर लेफ्टिनेंट बाघ और मेजर हयूसन को गोली मार दी। मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल करके 8 अप्रैल 1857 को फाँसी दे दी गई। इस शहादत के पश्चात मंगल पाँडे वस्तुतः 1857 के प्रथम स्वातंत्रय संग्राम का अग्रदूत बन गया। इस घटना के बाद ब्रिटिश शासक इतने भयभीत हो उठे कि 34 वीं रेजिमेंट को पूर्णरुपेण डिसमेंटल कर दिया गया।
समकालीन लेखकों और इतिहासकारों ने मुख़तलिफ तौर तरीकों से 1857 के महान् इंकलाब की विवेचना अंजाम दी गई। इतिहासकार हेनरी मीड ब्रिटिश मिलीटरी कमांडर सर कालीन कैंपबैल ने इसे सिपोय म्यूटनी करार दिया। ब्रिटिश एडवोकेट जनरल जॉन ब्रूश नॉटर्न ने इसे पीपुल्स म्यूटनी की संज्ञा प्रदान की। सर सैयद अहमद खाँ ने इसे भारतीय सैनिकों का राजद्रोह करार दिया। कार्ल मार्क्स ने द न्यूयार्क ट्रिब्यून में अपना प्रख्यात कालम लिखते हुए, इस राष्ट्रीय विद्रोह की व्यापक समीक्षा की और इसे साम्राज्यवाद के विरुद्ध इंडियन पीपुल्स की वार आफ इंडिपैन्डेंस निरुपित किया। इटली के एकीकरण के महान् लीडर मैजनी ने अपने अखबार ‘इटालियन डेल पोपलो’ में इसे प्रथम श्रेणी का नेशनल रिबैल बताया। यहां तक कि ब्रिटिश पार्लियामेंट में बोलते हुए तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजराइली ने बाकायदा तसलीम किया कि यह एक सिपोय म्यूटनी न होकर एक नेशनल म्यूटनी रही, जिसमें इंडियन सिपोय तो उसे सक्रिय रुप प्रदान करने का माध्यम मात्र रहे।
1857 का संग्राम कदाचित कोई अनयास घटित हुई बगावत नहीं थी। ब्रिटिशर्स ने 1857 के पलासी युद्ध से लेकर 1857 तक के सौ वर्ष के कालखंड में हिंदुस्तान के सांमतशाहों से लेकर किसानों, दस्तकारों, व्यापारियों और आदिवासियों आदि तक की जिंदगी को साधन-संसाधनों से वंचित कर देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़़ी। भयावह साम्रज्यवादी शोषण उत्पीड़न निरंतर के जारी रहते बार बार पड़ने वाले अकालों ने 50 लाख भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया। 1857 से पहले ही ब्रिटिश राज के विरुद्ध किसानों और आदिवासियों के संग्राम की एक दीर्घ पंरपरा इतिहास में विद्यमान रही। 1857 का स्वातंत्रय संग्राम तो इसकी चरम परिणति रही। नाना साहब पेशवा और अजीमुल्ला खाँ जैसे अनेक नेताओं ने योजनाबद्ध रुप से इसकी तैयारी अंजाम दी, हाँलाकि सुनियोजित तौर तरीके से यह संग्राम संचालित नहीं किया सका और यह भी इसकी विफलता का प्रमुख कारण सिद्ध हुआ।
मेरठ कैंट से फ़ौजी बगावत प्रारंभ होते ही मेरठ के आस पास के गांव देहात के हजारों किसान योद्धा इसमें बाकायदा शामिल हो गए। सरधना, बागपत और बड़ौत, हापुड़, मुरादनगर के किसानों ने विशाल संख्या में बाबा शाहमल की लीडरशिप में फौज़ियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश साम्राज्य और उसकी फौज से लोहा लिया। ब्रिटिश फौज़ को पराजित करते हुए 11 मई को दिल्ली के लाल किले पर पंहुच कर मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को प्रथम स्वातंत्रय संग्राम का सर्वोच्च कमांडर घोषित किया। इसके पश्चात तो स्वातंत्रय संग्राम ने देशव्यापी आयाम ग्रहण कर लिया। भारत के नार्थ वैस्ट में स्वात घाटी से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक मेरठ से उठे स्वातंत्रय संगाम्र की बगावती लपटें जा पंहुची। ब्रिटिश शासकों को निरंतर तीन वर्षो तक 1857 के सैन्य-किसान संग्राम से जूझना पड़ा। लार्ड कैनिंग ने मुनादी करा के सरकारी ऐलान करवाया कि जो भी इस म्यूटनी में शमिल होगा, उसकी समस्त संपत्ति जप्त करके उसे ब्रिटिश स्टेट का बागी घाषित कर दिया जाएगा और सजा ए मौत दी जाएगी। ब्रिटिश इतिहासकारों के अनुसार तकरीबन तीन लाख भारतवासी 1857 के तीन वर्षो तक जारी संग्राम में शहीद हुए।
भारत के इतिहास में यह चमत्कारिक और अपूर्व संग्राम साबित हुआ, जिसमें देश के प्रायः सभी इलाकों के, सभी वर्गों के धर्मों के जातियों के और पंथ-संप्रदायों के पुरुषों महिलाओं और बच्चों ने जबरदस्त शिरकत अंजाम दी। भारत के लिए सदैव ही प्रथम स्वातंत्रय संग्राम महान् प्रेरणा का प्रबल स्रोत रहा। ब्रिटिश शासकों की ‘डिवाइड एंड रुल पालिसी’ जोकि हिंदू और मुसलमानों के बीच सदैव ही फूट डालने की रही, यह प्रबल स्वातंत्रय संग्राम उसका मुहतोड़ जवाब सिद्ध हुआ। हिंदू-मुस्लिम एकता अत्यंत ताकतवर रुप में देश के समक्ष उभरकर आई। ब्राहम्न, राजपूत, जाट, मराठे, गोरखे, सिख आदि सभी अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर पूर्णतः एकजुट हुए। सर्वविदित है कि हिंदुस्तानियों की परस्पर फूट ही उनकी गुलामी का सबसे विशिष्ट कारण बनी रही। 1857 में पहली बार भारतीय एकताबद्ध होकर स्वातंत्रय संग्राम में जूझ गए। ग्वालियर के महाराजा सिंधिया सरीखे कुछ शक्तिशाली सामंतों के इस संग्राम में अंग्रेजों के पक्ष में खड़े हो जाने के कारण यह जंग-ए-आज़ादी अधूरी रह गई। किंतु आज़ादी के दिवानों के लिए प्रबल प्ररेणा की अपनी विराट विरासत सौंप गई। यह अक्षुण्ण विरासत प्रायः युगों युगों तक क्रांतिकारियों को गहन तौर पर प्रेरित करती रहेगी। लाला हरदयाल की महान् लीडरशिप में गदर पार्टी के क्राँतिकारियों ने 1907 में दुनिया भर में जहां कहीं भी वे निर्वासन में रहे, 1857 के वार आफ इंडिपैन्डैंस की पचासवीं वर्षगांठ का जोरदार जश्न मनाया। इसके पश्चात तो प्रत्येक वर्ष ही दस मई क्रांतिकारियों के लिए मानो राष्ट्रीय त्योहार ही बन गया।
आज का भारत एक बार पुनः जातिवादी, धार्मिक और क्षेत्रीय संकीर्णताओं का शिकार बनता जा रहा। आजादी के संग्राम में उभरे देशभक्ति के प्रबल और गतिमान संस्कार शनैः शनैः कमजोर पड़ गए। अनेक चेहरों मोहरों के साथ आतंकवाद समूचे इंडिया की धरा पर दनदनाता रहा। कहीं जेहाद के नाम पर, कहीं हिंदू राष्ट्रवाद के नाम पर, तो कहीं क्षेत्रिय पृथकतावाद के नाम पर, विघटनकारी जहर लिए आतंकवाद देश के नौजवान को गुमराह करने में जुटा रहा। ऐसे संकटकाल में जबकि देश की राजनीति और राजनीतिक दल आदर्शहीनता की अंधी गलियों भटक गए हैं। यहां तक कि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को भी जातिवाद और सांप्रदायिकता का दलदल प्रायः लुभाता और भरमाता रहा है। कुछ कथित पुरोधाओं द्वारा धार्मिक संकीर्णता को नेशनलइज्म निरुपित किया जाता रहा है। क्षेत्रीय मत्वाकांक्षाएं पृथकतावाद का राक्षसी रुप धरकर मारकाट मचाती रही हैं। 66 वर्षीय आजादी के दौर में संविधान में उल्लेखित निरुपित समाजवाद का महान् मकसद एक मजाक बन कर रह गया है। कुछ परिवारों की आथिक प्रगति को देश की तरक्की के तौर पर पेश किया जा रहा है, जबकि देश का 80 फीसदी आवाम बेहद गुरबत की जिंदगी जीते हुए बुनियादी जरुरतों तक से भी महरुम बना रहा है। ऐसे दौर में 1857 के स्वातंत्रय संग्राम द्वारा स्थापित किए गए आदर्शो को बार बार स्मरण करने और अपनाने की महती आवश्यकता है। जबकि देश की आजादी की खातिर कितने ही राजा-महाराजा फकीर बन गए। हिंदू-मुसलमान अपने मतभेदों को विस्मृत करके एकजुट हो गए। घृणित सांप्रदायिकता और जातिवाद तो देशभक्ति की प्रबल अविरल धारा के उफान में बह गए थे।
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