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सोशल मीडिया का द्वंदात्मक पहलू
(प्रभात कुमार रॉय)
इन दिनों सोशल मीडिया के तहत अभिव्यक्ति की आजादी सवाल पर भारत के गली-कूचों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बहस मुबाहिसा जारी है। सुविख्यात ब्रिटिश जस्टिस लार्ड ब्रियन लेविसन ने सामाजिक अभिव्यक्ति के प्रश्न पर अपनी प्रबल प्रस्थापना पेश की थी, जिसे आज भी अनेक लोकतांत्रिक राष्ट्रों में एक शानदार कानूनी दिशा-निर्देश स्वीकार किया जाता रहा है, जिनमें भारत भी एक रहा है। ब्रिटेन में एक दौर आया था जबकि अभिव्यक्ति की आजादी का खुलकर दुरुपयोग प्रारम्भ हुआ और संगठित प्रेस से लेकर राजनीतिक दलों द्वारा साँस्कृतिक-सामाजिक और राजनीतिक हल्कों में स्थापित पराम्परागत मर्यादाओं का खुलकर उल्लंघन होने लगा। उस दौर में तकरीबन दो हजार पृष्ठों में अत्यंत विस्तार से जस्टिस लार्ड ब्रियन लेविसन ने लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रकाश डाला, जिसकी रौशनी में इंगलैंड का समाज, संसद और कानून अत्यंत प्रभावित हुआ। जस्टिस लार्ड ब्रियन लेविसन ने अपनी कानूनी प्रस्थापना में कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रबल बुनियादी पहलू है, किंतु किसी भी तौर पर सभ्य समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वस्तुतः उछृलंख, अराजक और अमर्यादित कदापि नहीं हो सकती। सभ्य समाज सकारात्मक और द्वंदात्मक तौर तरीकों से स्वयं ही सुनिश्चित किया करता है कि अभिव्यक्ति की आजादी की आखिरकार कौन सी मर्यादाएं कायम रहेगी। लोकतांत्रिक समाज में परिवर्तित होती हुई मुखतलिफ हुकूमतों की इच्छा और सनकों पर अभिव्यक्ति की आजादी के प्रबल प्रश्न को कदाचित छोड़ा नहीं जा सकता। इसीलिए राष्ट्र के सभी अधिनियमों और कानूनी प्रावधानों की दिशा-दशा को नियंत्रित करने वाले संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बुनियादी अधिकारों के तहत स्थापित किया गया, ताकि कोई हुकूमत मनमाने तौर पर इस बुनियादी नागरिक अधिकार का हरण कदाचित ना कर सके।
विश्व पटल पर सोशल मीडिया के पदापर्ण के तत्पश्चात अभिव्यक्ति की आजादी का अत्यंत ताकतवर पहलू दुनिया के सामने आया, क्योंकि इसने व्यक्तियों और ग्रुपों के विचारों के प्रसार-प्रचार को विलक्षण विस्तार प्रदान कर दिया। विश्व रंगमंच पर सोशल मीडिया ने शक्तिशाली रुप से स्थापित होकर संस्थागत संगठित मीडिया के एकाधिकार से विचारों के प्रसार-प्रचार को बाहर कर दिखाया। सर्वविदित है कि एक व्यक्ति हो तथा संगठित मीडिया कानूनी मर्यादाओं के जो कायदे कानून इन सभी पर लागू होते रहे हैं, वही सब सोशल मीडिया पर स्वतः ही लागू हो जाते हैं, इसके लिए अलग से किसी पृथक कानूनी प्रावधान की दरकार नहीं समझी गई। सोशल मीडिया की अभूतपूर्व शक्ति ने अनेक अरब देशों में लोकतांत्रिक इंकलाब को कामयाब अंजाम तक पंहुचाने में ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया। सोशल मीडिया की असीम प्रचार-प्रसार शक्ति से शासक वर्ग अत्यंत हैरान-परेशान हो उठा है, क्योंकि संगठित संस्थागत मीडिया को राजसत्ता की शक्ति से प्रभावित कर पाना अपेक्षाकृत आसान रहा, किंतु सोशल मीडिया को काबू कर पाना अत्यंत दुश्वार सिद्ध हो रहा है। इजिप्ट के तहरीर चौक पर जमा हुए इंकलाबी आवाम ने हुस्नी मुबारक को उसके अंजाम तक पंहुचा दिया। दिल्ली के जंतर-मंतर पर भ्रष्ट्राचार विरोधी अन्ना आंदोलन ने भ्रष्ट्राचार की दलदल में गले तक गर्क भारतीय शासकवर्ग के छक्के छुड़ा दिए। शक्तिशाली शासक वर्ग को प्रतीत होने लगा कि सोशल मीडिया की ताकत ने विशाल मध्यवर्ग को भ्रष्ट्राचार विरोधी अन्ना आंदोलन से एकाकार किया है, अतः वे एकजुट होकर सोशल मीडिया पर लगाम कसने के लिए अत्यंत तत्पर हो उठे। आईटी एक्ट की धारा 66ए का विवादित प्रावधान वस्तुतः शासकवर्ग के अति उतावलेपन और भयग्रस्त मानसिकता का कुपरिणाम है, जिसकी संवैधानिक समीक्षा करने का फैसला अब सुप्रीम कोर्ट ने किया है।
भारत ऐतिहासिक एवं साँस्कृतिक पर गहन सामाजिक मर्यादाओं से सराबोर राष्ट्र रहा है। भारत के सबसे पूज्यनीय आदरणीय व्यक्तित्व को मर्यादा पुरुषोत्म राजा रामचंद्र के तौर पर जाना पहचाना गया। भारत के घर घर में रामचरितमानस की मौजूदगी इस तथ्य का ज्वलंत ज्वाजल्य प्रमाण है कि साँस्कृतिक-सामाजिक मर्यादाओं के संस्थापन को राजसत्ता की वैधानिक शक्ति से कहीं अधिक समाज की नैतिक शक्ति की दरकार हुआ करती है। समाज अपनी समूची रीति-नीति और समस्त तौर तरीकों को उस ऐतिहासिक दौर से स्वयं तय करता आया है जबकि समाज के पटल पर राजसत्ता का उदय भी नहीं हुआ था। जीवंत आदिवासी समाज के परम्परागत सामाजिक कायदे कानून आज भी दौर की स्मृतियां ताजा कर देता जबकि समूचे समाज के लिए राजसत्ता नहीं वरन् समाज स्वयं अपने लिए सामाजिक कानूनी मर्यादा निर्धारित किया करता था। अब यह सामाजिक रिवायतें भारत के आदिवासी समाज और कहीं कहीं गाँव-देहात में अवशेष के तौर पर सुरक्षित रह गई है।
सोशल मीडिया की अपार शक्ति के खतरनाक दुरुपयोग की संभावना किसी तौर पर भी उसी तरह विद्यमान हैं, जिस तरह से किसी अन्य प्रसार-प्रचार माध्यम के तहत विद्यमान रही हैं। राष्ट्र और समाज में विनाशकारी वैमनस्य फैलाने और उसे तीव्रतर तौर से विषमय बनाने में सोशल मीडिया कारगर साबित हो सकता है कि राष्ट्र और समाज विखंडित हो जाए। अतः सकारात्मक प्रतिबंधों का कानूनी दायरा उस पर बाकायदा लागू होता रहा है। किसी नागरिक अथवा समुदाय को गलत तथ्यों के आधार का व्यक्तिगत तौर बदनाम करने और अपमानित करने के विषय में इंडियन पीनल कोड के तहत दंडात्मक प्रावधान प्रभावी रुप से विद्यमान रहे हैं। भारत की विडंबना यह है कि यहां कानूनों और अधिनियमों की अत्यधिक भरमार रही है, किंतु उनको सक्रिय तौर पर लागू करने में सदैव पुलिस-प्रशासनिक बेहद सुस्ती कायम रही है। न्यायिक विलंब ने तो हालात को और अधिक दुष्कर बना दिया है कि संगीन अपराधी बेखौफ होकर दुर्दान्त हो चुके हैं। भारतीय समाज को सुनिश्चित करना होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आखिर क्या हद तय हो, ताकि कोई व्यक्ति अथवा समूह इसका बेजा दुरुपयोग करके राष्ट्र और समाज को नकारात्मक क्षति कदापि ना पंहुचा सके। संवैधानिक उद्दश्यों और निर्देशों की रौशनी में सोशल मीडिया के अधिकारों और दायित्वों का निर्धारण किया जाए। भारत के बाहृय दुश्मनों और आंतरिक गद्दारों की बहुत अधिक तादाद है, ये सोशल मीडिया का बेलगाम इस्तेमाल भारत को तहस नहस करने में करने में जुटे हुए हैं। विनाशकारी सांप्रदायिकता, वैमनस्यपूर्ण जातिवाद, प्रबल प्रांतवाद और विषैले पृथकवाद के प्रचार-प्रसार से भारत राष्ट्र को बहुत क्षति पहले ही हो चुकी है। सोशल मीडिया में इन तमाम देशद्रोही तत्वों द्वारा जारी दुष्प्रचार पर लगाम कसना आवश्यक बना रहा है, अतः सोशल मीडिया को अन्य प्रचार प्रसार माध्यमों की तर्ज पर ही लिया जाना चाहिए इसके साथ अलग से किसी विशेष वैधानिक व्यवहार की कतई दरकार नहीं है।
(समाप्त)
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