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धधकता असम और नाकारा हुकूमत

WORDS OF PK ROY
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प्रभात कुमार रॉय
असम विगत कुछ दिनों से दंगों की ज्वाला में धधकता रहा। तकरीबन ढाई लाख लोग बेघर हो गए, 77लोग हलाक़ किए जा चुके हैं। असम के मुख्यमंत्री फरमाते हैं कि राष्ट्रीय मीडिया उन्हें बदनाम कर रहा है। संपूर्ण असम नहीं धधक रहा है, असम में तो कुल 28 जिले हैं, किंतु सिर्फ चार ही तो धधक-सुलग रहे हैं। 19 जुलाई को कोकराझार में पहली हिंसक वारदात अंजाम दी गई , किंतु प्रांतीय हुकूमत और अंतोगत्वा केंद्रीय हुकूमत के लापरवाह रवैये के कारण हिंसक दंगों ने 22 जुलाई तक विकराल रुप धारण कर लिया। सांप्रदायिक दंगों की चपेट वाले इलाके का दौरा करने का निर्णय लेने में गोगोई को चार दिन लग गए। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई आजकल असम के बिगड़े हुए हालात के लिए केंद्रीय हुकूमत पर संगीन इल्जाम आयद किया कि केंद्रीय सरकार द्वारा असम सरकार को वक्त रहते पर्याप्त संख्या में सुरक्षा बल उपलब्ध नहीं कराए गए और जो कुछ फौजी ब्रिगेड्स इलाके में मौजूद रही, उनको भी केंद्र द्वारा तत्काल कार्यवाही करने का हुक्म जारी नहीं किया गया। मनमोहन सिंह हुकूमत पर उनकी ही काँग्रेस पार्टी के मुख्यमंत्री द्वारा आयद किया गया बेहद संगीन इल्जाम है। गोगोई उन गिने-चुने मुख्यमंत्रियों में हैं, जो राहुल अथवा सोनिया गाँधी के कथित करिश्मे के बिना ही दुबारा चुनाव जीत गए। कानून व्यवस्था के तमाम मामलात वस्तुतः संवैधानिक तौर पर मूलतः प्रांतीय हुकूमत के अधिकार क्षेत्र के तहत आते हैं। केंद्रीय हुकूमत प्रांतीय सरकारों को इनसे कारगर ढ़ग से निपटने में आवश्यक इमदाद मुहैया कराती है। असम की वर्तमान सूरत-ए-हाल के लिए केंद्रीय हुकूमत ने असम की सुस्त सरकार और नौकरशाहों पर इल्जाम आयद किया। वस्तुस्थिति यह कि सुरक्षा बलों को तत्काल असम रवाना करने में केंद्रीय हुकूमत ने कहीं अधिक नाकारापन और सुस्ती का परिचय दिया।
सन् 90 के दशक में उल्फा आतंकवाद के बेकाबू हालात के विरुद्ध आपरेशन राइनो और आपरेशन बजरंग के तहत भारतीय सेना को बाकायदा उतारा गया। सेना पराक्रम प्रदर्शित करते हुए आतंकवादियों को निर्णायक शिकस्त देने की दिशा में अग्रसर थी कि केंद्रीय हुकूमत द्वारा सेना के आपरेशन को मध्य में ही मनमाने तौर पर रोक दिया गया, जबकि असम सरकार सैन्य आपरेशन को जारी रखने के हक़ में थी। पूर्वोत्तर में सदैव विनाशकारी मौकापरस्त नजरिए से हिंसक समस्या को हल करने की पहल की गई। राजधानी दिल्ली में विराजमान राजनेताओं और नौकरशाहों द्वारा सदैव ही पूर्वोत्तर की समस्या के प्रति उपेक्षा पूर्ण रवैया अख्तियार किया गया। इसका परिणाम हुआ कि पूर्वोत्तर की समस्या समस्या उत्तरोतर विकराल रुप धारण करती चली। नगालैंड से लेकर मणिपुर तक प्रत्येक प्रांत दशकों से बर्बर आतंकवाद का शिकार बना रहा है। अतीत में भी असम के नेल्ली जैसे भीषण सांप्रदायिक खून-खराबे ने भी देश को शोक-संतप्त और शर्मिंदा किया है।
अविभाजित असम में साठ के दशक में जब असमिया भाषा को संपूर्ण प्रांत की शासकीय भाषा बनाने का प्रस्ताव किया गया तो उस पर ब्रह्मपुत्र की घाटी में मैदानी और पहाड़ी मूल के कबीलों के मध्य हिंसक टकराव हुआ। हिंसक झड़पों के दौरान मीजो विद्रोहियों द्वारा लुशाई पहाड़ियों में स्थिति इतनी विस्फोटक बना दी गई कि बीबीसी रेडियो ने ऐलान कर दिया कि मीजो इलाका भारत से अलग हो गया। इसके पश्चात भी प्रशासनिक सख्ती कदाचित आयद नहीं की गई और वक्त गुजरता चला गया। इस दौरान इलाके में एक उग्र अलगावपरस्त मीजो लिबरेशन फ्रंट निर्मित हुआ, जिसने 1966 में भारत, बर्मा (म्यांमार) और पूर्वी पाकिस्तान के मीजो इलाकों को मिलाकर एक आज़ाद मिजो मुल्क बनाने की मांग बुलंद कर दी। आखिरकार अनेक हिंसक बगावतों जूझते हुए हुए प्रांत का भाषायी आधार पर पुनर्गठन किया गया और अंततः असम को सात प्रांतों में विभाजित कर दिया गया। किंतु इस दौर में हिंसक क्षेत्रवाद व अलगावपरस्ती की फ़ितरत संपूर्ण इलाके में व्याप्त हो ही चुकी थी।

1971 में पाकिस्तान में गृहयुद्ध हुआ। 1971 के दौरान भारत-पूर्वी पाकिस्तान सरहदपार से आए लाखों शरणार्थियों ने असम के ग्वालपाड़ा, धुबरी और कोकराझाड़ इलाकों के अलावा त्रिपुरा तथा मेघालय में भी द्वारा सार्वजनिक जमीनों और स्कूली इमारतों में बनाए शरणार्थी शिविरों में पनाह ली। शरणार्थियों में मुसलमानों के अलावा बांग्लादेशी हिंदू, सिख और बौद्ध समुदायों के बांग्लादेशी भी थे। भारत-पाक युद्ध की समाप्ति के बाद बांग्लादेश की तशकील के पश्चात बांग्लादेशियों का एक बड़ा तबका वायदे की खिलाफवर्जी करके अपने देश वापस नहीं लौटा। यहाँ तक कि 1971 के पश्चात भी बांग्लादेशी घुसपैठिए निरंतर सरहदपार से सुरक्षा बलों को चकमा या घूस देकर असम में दाखिल होते रहे और काँग्रेस की प्रांतीय हुकूमत द्वारा वोट बैंक की खातिर घुसपैठियों को नागरिक बनाती रही और स्थानीय कबीलों के मध्य संकीर्ण जातिय भावनाएं भड़काकर बहुसंख्यकों को अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने में संलग्न रही। अराजक राजनीतिक हालत की शह पाकर सरहदपार से हथियारों, ड्रग्स और दहशतगर्दो की अनधिकृत आवाजाही बाकायदा जारी रही। साथ ही संपूर्ण पूर्वोत्तर के सरहद इलाकों पर सार्वजनिक जमीन, जंगल और भवन भी अवैध अतिक्रमण का शिकार होते रहे हैं। इससे अत्यंत संवेदनशील और लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर असुरक्षित और खौफ़जदा स्थानीय मूल निवासियों, कबीलों और गैरकानूनी घुसपैठियों के मध्य कशदगी और तनातनी खतरनाक हद तक बढ़ती चली गई। आगे इसी दौर में हथियारबंद नगा लोग मणिपुर में और बोडो जनजाति असम में अपनी स्वायत्तता की मांग लेकर अत्यंत हिंसक हो गए।

2003 में बोडोलैंड क्षेत्रीय स्वायत्तता परिषद बनने तक परिदृश्य में विशाल तादाद में घुसपैठिए इलाके में बसते रहे और स्थानीय आबादी का प्रतिशत घटता रहा। सभी ।जमीन से जबरन बेदखल किए जाने की वारदातें भी निरंतर बढ़ती रही और सिर्फ 2011 में जमीन विवाद में यहां 155 हत्याएं हुई। 2011 के जनगणना के मुताबिक असम के 27 जिलों में से 11 मुस्लिमबहुल बन गए और स्थानीय मूल नागरिक गण अल्पसंख्यक बन गए। इलैक्शन कमीशन द्वारा भी इस समस्त क्षेत्र में विगत चुनाव में 1.5 लाख मतदाताओं की वैधता संदिग्ध करार दी गई। चुनाव-दर-चुनाव में ओछे निकम्मी दलगत खुदगर्जी के तहत धर्म, जाति, समुदाय और भाषा के नाम पर लगातार अशांति फैलाने वालों के खतरनाक दहशतगर्द दस्तों को मौन उकसावा मिला और इस पर संदिग्ध नागरिकता, आतंकी तत्वों की निरंतर घुसपैठ और तस्करी के कुल 4 लाख संगीन कोर्ट केस भी न्यायिक और प्रशासनिक सुस्ती के बदस्तूर जारी रहते हुए अनिर्णीत पड़े रहे । असम की वर्तमान हिंसा भी इन्हीं तमाम हालात का मिलाजुला नतीजा है।

मनमोहन सिंह विगत 20 वर्षो से असम से राज्यसभा के सांसद हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फरमाया कि असम के दंगे ‘कलंक है और उनके द्वारा बोडो व अल्पसंख्यक दोनों ही समुदाय के लोगों को दंगों का मुलजिम करार दिया गया। दूसरी तरफ वाशिंगटन स्थित ह्यूमन राइट्स वाच ने भारत सरकार को हिदायत दी है कि असम की जातीय हिंसा पर नियंत्रण के लिए संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों के अनुसार सेना को घातक बल प्रयोग की अनुमति नहीं दी सकती। सुरक्षा बलों को संगीन हालात को काबू करने के लिए सुरक्षा बलों की कारगर तैनाती में देरी की पृष्ठभूमि में, कहीं कथित मानवाधिकार संगठनों का दबाव तो विद्यमान नहीं है जोकि अमेरिका और पश्चिम की सरपरस्ती में कार्यरत हैं। सभी तरह के हिंसक तत्वों से राजसत्ता को अत्यंत बेरहमी के साथ निपटना पड़ता है। जो कोई राजसत्ता, कानून व्यवस्था की धज्जियां बिखरने वाले हिंसक तत्वों के प्रति लापरवाही अथवा राजनीतिक मौकापरस्ती का रवैया अख्तियार करती है उसे इतिहास कदापि क्षमा नहीं करता और उसके दुशः परिणाम आने वाली पीढ़ियों को भी भुगतने पड़ते हैं। पूर्वोत्तर के हिंसक वातावरण के प्रति केंद्रीय हुकूमत का रवैया सदैव से ही बेहद उपेक्षा पूर्ण रहा है। मनमोहन सिंह सरकार ने तो इस संबंध में सारी हदें पार कर दी, जबकि हिंसक ज्वाला में धधकते हुए असम को समय से पर्याप्त सुरक्षा बल उपलब्ध नहीं कराए गए।

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