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नक्सल समस्या का निदान

WORDS OF PK ROY
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भारत में नक्सल समस्या की दुरुह जटिलताएं दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। बंदूकों और बमों के बल पर समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश करने वाले नक्सल विद्रोहियों को विगत 45 वर्षो में दंडकारण्य इलाके के आदिवासी किसानों के अतिरिक्त शेष भारत में करोड़ों किसानों के मध्य कतई भी समर्थन और स्वीकार्यता प्राप्त नहीं हो सकी। वास्तविक वामपंथी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी होने का दंभ भरते हुए सन् 1970 से ही नक्सल विद्रोही दर्जनों गुटों में बंट गए। अधिकतर स्थानों पर नक्सल कार्यनीति और रणनीति गिरोहबंद आतंकवादियों की तरह से संचालित की जाने लगी। नक्सलों ने सदैव से ही कामरेड माओ की विचारधारा से स्वंय को प्रेरित क़रार दिया, किंतु वास्तविक रणनीति में नक्सल लीडरशिप लातिन अमेरिका के कामरेड चे ग्वारा के फोको आतंकवाद का अनुसरण करती नजर आई। कामरेड चे ग्वारा ने लातिन अमेरिका में विशेषकर क्यूबा में सशस्त्र समाजवादी क्रांति के दौर में फोको आतंकवाद की रणनीति विकसित की थी। चे ग्वारा ने दलील पेश की थी कि गुरिल्ला सशस्त्र कार्यवाही की रणनीति के द्वारा हासिल प्रचार से ही किसानों के मध्य आधार क्षेत्र का विस्तार किया जाए और किसानों का सक्रिय समर्थन हासिल करने की कार्यनीति अपनाई जाए। नक्सल नेतृत्व के पुरोधाओं ने विशेषकर चारु मजूमदार और कोंडापल्ली सीतारमैया ने भी चे ग्वारा का अनुसरण करते हुए विशाल किसान आधारक्षेत्र का निर्माण किए बिना ही सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत करने पर जोर दिया। चे ग्वारा ने गुरिल्ला युद्ध नामक अपनी पुस्तक में महत्वपूर्ण प्रस्थापना पेश की जिस पर कि नक्सलों ने कदापि गौर नहीं किया, इस प्रस्थापना में कहा गया कि जिस स्थान पर भी शांतिपूर्ण परिवर्तन का राजनीतिक विकल्प विद्यमान हैं, वहां पर फोको आतंकवाद की रणनीति कदापि कामयाब नहीं हो सकती। भारत में नक्सलों की घोर नाक़मी वस्तुतः कामरेड चे ग्वारा की प्रबल प्रस्थापना में ही निहित रही है। भारत में गहराई से जड़ें जमा चुकी लोकतांत्रिक प्रणाली में इस बात की पूरी व्यवस्था प्रदान की गई कि कोई भी व्यक्ति अथवा दल अपने विचारों का प्रचार प्रसार करे तथा आम जनता का विश्वास हासिल करके राजसत्ता में काबिज हो सकता है। नक्सलियों ने चे ग्वारा की प्रस्थापना के अनुसार शांतिपूर्ण विकल्प को कदाचित आजमाया ही नहीं । संभवतया नक्सलों को यह असंभव प्रतीत होता है कि वे जनतांत्रिक मतदान प्रक्रिया के माध्यम से कभी राजसत्ता हासिल कर सकेंगे। इसीलिए राजसत्ता हस्तगत के लिए नक्सलों ने आतंकवाद को अपना हथियार बना लिया। छोटे-छोटे नक्सल गुट एक के बाद एक आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहे ।

नक्सल गुरिल्ला रणनीति में आतंकवाद और अपहरण आवश्यक तत्व बन गए। स्वयं को कामरेड माओ का अनुयायी क़रार देने वाले नक्सलों द्वारा परंपरागत माओवादी रणनीति में पूर्णतः वर्जित व्यक्तिगत आतंकवाद को शुरू से ही अपनाया गया। नक्सल लीडर चारू मजूमदार के वक्त से ही नक्सल छापामार कथित वर्ग शत्रु के इंडिविजुअल एनीहिलीएशन अर्थात व्यक्तिगत खात्मे की रणनीति पर अमल दरामद बने रहे। बाद में चारू मजूमदार के अनेक अनुयायियों ने जिनमें कानू सान्याल, असीम चटर्जी, संतोष राणा सबसे प्रमुख रहे, नक्सलवादियों की व्यक्तिगत आतंकवाद की रणनीति का जबरदस्त विरोध किया और उसकी अत्यंत प्रखर सैद्धांतिक आलोचना भी अंजाम दी। 1967 में नक्सलबाडी़ इलाके से आरम्भ हुआ, आदिवासी किसान विद्रोह 15 राज्यों के दो हजार पांच सौ से अधिक थाना क्षेत्रों में फैल चुका है। सरकार के उच्च खुफिया सूत्रों के मुताबिक तकरीबन बीस हजार पूर्णकालिक नक्सल छापामार सक्रिय रहे हैं। तकरीबन एक लाख सक्रिय नक्सल समर्थक तत्व इनकी इमदाद किया करते हैं। सरकारी अधिकारियों को किडनैप करके अपने गिरफ्तार साथियों को जेल से रिहा करा लेने की नक्सल गुरिल्ला रणनीति काफी पुरानी रही है। सबसे पहले इस गुरिल्ला रणनीति को पीपुल्स वार ग्रुप के नक्सल नेता कोंडापल्ली सीतारमैया के नेतृत्व में आंध्र प्रदेश में अपनाया गया। 1980 के दशक के अंतिम दौर में पीपुल्स वार ग्रुप के नक्सल गुरिल्लों ने छः बड़े शासकीय अधिकारियों का घात लगा कर अपहरण किया तो आंध्र सरकार हिल गई और केंद्र सरकार भी सकते में आ गई। वारंगल जिले के घने जंगलों में आंध्र पुलिस सघन काम्बिंग आपरेशन के बावजूद अपहृत अधिकारियों को खोज निकालने में नाकाम रही। आंध्र सरकार के अपहृत बड़े अधिकारियों को रिहा करने के एवज में पीपुल्स वार ग्रुप के नक्सल अपने अनेक गिरफ्तार साथियों को जेल से रिहा करा सकने में कामयाब हो गए।

भारत की हुकूमत को यदि कारगर तौर पर नक्सल विद्रोहियों से निपटना है तो उसे अपनी रणनीति और कार्यनीति में बुनियादी बदलाव करना होगा। कॉरपोरेट सैक्टर के स्थान राष्ट्र के किसानों के आर्थिक- सामाजिक विकास को केंद्र बिंदु में रखना होगा। केवल राजसत्ता की प्रबल ताकत के दमखम से नक्सलों को शिकस्त देना यक़ीनन दुष्कर होगा। नक्सल विद्रोही अभी तक आदिवासी किसानों के मध्य व्याप्त आर्थिक-सामाजिक अंसतोष के आधार पर अपनी शक्ति का विस्तार करते रहे, यदि राष्ट्र के करोडों असंतुष्ट और शोषित-उत्पीड़ित किसानों का किंचित तौर पर आकर्षण नक्सलों की ओर हो गया तो स्थिति बेकाबू हो सकती है। विगत एक दशक में ही देश के तकरीबन दो लाख अस्सी हजार किसान आत्मघात अंजाम दे चुके हैं। इसी तथ्य से अनुमान लगाया जा सकता है कि राष्ट्र के किसानों के मध्य किस कदर हताशा और निराशा का वातावरण व्याप्त है।

नक्सलों से निपटना है तो भारतीय हुकूमत और कॉरपोरेट सैक्टर दोनों को ही अपने किसान विरोधी चरित्र का पूर्णतः परित्याग करना होगा। किसान हितैषी छवि का निर्माण करके ही हुकूमतें विद्रोही आदिवासी किसानों का दिलो दिमाग जीत सकती है और नक्सल तत्व अपना गुरिल्ला आधार क्षेत्र गंवा सकते हैं। ग्राम विकास योजनाओं में भ्रष्टाचार को पूर्णतः समाप्त करना होगा, ताकि सत्ता के दलालों को अमीर बनाने वाला सरकारी धन वस्तुतः किसान हितों में लग सके। भ्रष्टाचारियों के लिए कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान भ्रष्ट्राचार का निदान है।
सलवा जूडम और आपरेशन ग्रीन हंट की नाक़ामी इंगित करती है नक्सलों से लोहा लेने की शासकीय इच्छा शक्ति कितनी निर्बल सिद्ध हुई। हुकूमतों का भ्रष्ट तंत्र नक्सल हिंसा पर कितना भी स्यापा क्यों न करता रहे , नक्सल प्रभाव क्षेत्र के विस्तार को रोकने में सदैव नाक़ाम साबित हुआ। वाममोर्चा सरकार ने तकरीबन 40 वर्षो तक बंगाल में नक्सल उभार को रोकने में कामयाबी हासिल की, किंतु आखिरकार कॉरपोरेट परस्त और किसान विरोधी नीतियों को प्रमुखता प्रदान करके समस्त उपलब्धियों के साथ वाममोर्चा प्रांत की सत्ता भी गंवा बैठा। नक्सलों के विरुद्ध आधुनिकतम हथियारों से लैस गुरिल्ला रणनीतिक युद्ध में प्रशिक्षित पुलिस बलों के साथ अत्यंत प्रबल खुफिया तंत्र का सृजन किए बिना, बेहद प्रतिबद्ध और नृशंस नक्सलों को पराजित करना नामुमकिन रहेगा। नक्सलों के बरखिलाफ भारतीय सेना को उतारना समझदारी नहीं होगी, क्योंकि जैसा रणनीतिक गुरिल्ला युद्ध जंगलों से नक्सल लड़ रहे हैं उसमें अति सक्षम पुलिस बल ताकतवर खुफिया तंत्र के साथ मिलकर अत्यंत कारगर साबित हो सकता है। भारतीय फौज सरहदी इलाकों में उभरी बगावत को कुचलने के लिए तैनात की गई क्योंकि सरहद पार से आतंकवादी घुसपैठ निंरतर बनी रही है। ऐसी परिस्थिति नक्सल प्रभाव क्षेत्रों में कदाचित विद्यमान नहीं है। नक्सल विद्रोह का वास्तविक निदान तो आदिवासी किसानों के समुचित विकास मे निहित है, कारगर सशस्त्र कार्यवाही वस्तुतः तात्कालिक महत्व ही रखती है।

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