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गृहयुद्ध के भंवर में इराक
(अमेरिकी फौज का पलायन)
प्रभात कुमार रॉय
आखिरकार इराक को गृहयुद्ध के विकराल भंवर में छोड़ कर अमेरिकन फौज़ ने इराक को अलविदा कह दिया। इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन को राजसत्ता से बेदखल करने के लिए अमेरिकन फौज सन् 2003 में इराक में दाखिल हुई थी। अमेरिकन फौज़ की दखंलदाजी ने इराक पर कयामत ढा दी। सद्दाम हुसैन की हलाक़त के साथ ही तकरीबन एक लाख से अधिक नागरिक इराक़ की जंग में अमेरिकी फ़ौज ने मार दिए। अमेरिका के भी तकरीबन पाँच हजार से अधिक सैन्य योद्धा विगत आठ वर्षो के दौर में हलाक़ हुए और तकरीबन पच्चीस हजार से अधिक बुरी तरह जख्मी और अपंग हुए। अमेरिका ने कुल मिलाकर तकरीबन छः हजार अरब डालर इराक की जंग पर खर्च किए। अमेरिकन फ़ौज तकरीबन 30 करोड़ डालर के अत्याधुनिक हथियार इराक़ की सरजमीं पर ही छोड़ गई । इराक और अफ़गानिस्तान के दोहरे मोर्चो पर निरंतर जंग के विशाल खर्च ने सन् 2008 से अमेरिकन अर्थव्यवस्था को मंदी के भंवर में धकलने में एक अहम किरदार अदा किया। इराक को बेहद बदहाल हालात में छोड़ कर चले जाने का एक कारण यह भी रहा कि अमेरिका अब और अधिक इराक जंग के सैन्य खर्च को सहन नहीं कर सका।
अमेरिकन राष्ट्रपति ओबामा इराक के पश्चात अफगानिस्तान से भी 2014 तक फौजी पलायन करना चाहते हैं, ताकि धवस्त अमेरिकन अर्थव्यवस्था कुछ राहत की सांस ले सके। इराक में अमेरिका ने अपनी कठपुतली हुकूमत तशकील की और सुन्नी और शिया दोनों ही मुस्लिम समुदाय के सियासतदानों को इस हुकूमत में शामिल किया गया। उल्लेखनीय है कि इराक का तानाशाह सद्दाम हुसैन एक सुन्नी मुसलमान था, जिसके सुन्नी समुदाय की तादाद इराक में तकरीबन 30 फीसदी रही है। 24 वर्षों तक सद्दाम ने शिया समुदाय के तकरीबन 61 फीसदी और कुर्द समुदाय के 7 फीसदी नागरिकों को राजसत्ता की ताकत से कुचल कर अपनी हुकूमत अंजाम दी। इराक से अमेरिकन फौज के इराक की सरजमीं से हटते ही शियाओं और सुन्नियों में नफरत के शोलों को जोरदार हवा मिलने लगी। इराक हुकूमत में उपराष्ट्रपति और इराकिया पार्टी के लीडर तारिक अल हाशमी के गिरफ्तारी वारंट एक अदालत ने 22 दिसंबर को निकाल दिए। तारिक अल हाशमी पर इल्जाम आयद किया गया है कि उन्होने आतंकवाद को बढावा देकर शियाओं को निशाना बनाकर बम धमाके कराए। गिरफ्तारी से बचने के लिए तारिक अल हाशमी ने कुर्द इलाके में पनाह ली है। इराक हुकूमत में शिया प्रधानमंत्री नूरी अल मालिकी ने फरमाया है कि उपराष्ट्रपति तारिक अल हाशमी के मामले में कानून और अदालत बाकायदा अपना काम अंजाम देगी और हुकूमत इसमें दखल नहीं देगी। तारिक अल हाशमी के मामले को लेकर इराक मे दोनों समुदायों के मध्य जबरदस्त कशीदगी और तनाव का वातावरण व्याप्त हो गया है। शिया प्रधानमंत्री नूरी अल मालिकी ने कुर्दो को भी धमकी देते हुए कहा कि यदि उन्होने तारिक अल हाशमी को हुकूमत को नहीं सौंपै तो उन पर भी कडी कार्यवाही अंजाम दी जा सकती है।
शिया और सुन्नी समुदायो के मध्य निरंतर बढ़ते हुए तनाव और दूरियों के कारण इराक में गृहयुद्ध के आसार प्रबल हो रहे हैं। तानाशाह सद्दाम हुसैन के दौर में अंजाम दिए गए जुल्मो सितम का प्रतिशोध लेने के लिए शिया समुदाय अत्यंत उद्यत हो उठा है। अमेरिका ने अपनी इराक में फौजी मौजूदगी के काल में देश में अक़सरियत रखने वाले शियाओं पर सुन्नियों की तुलना में कहीं अधिक भरोसा किया । अमेरिकन फौज ने राजसत्ता सुन्नी हुकमरानों से बलपूर्वक हस्तगत की थी, अतः अमेरिका ने इराक़ के शियाओं को साथ लेकर चलने का प्रयास किया। इराक़ में तशक़ील की गई हुकुमत अभी तक सुन्नियों की इराकिया पार्टी के लीडरों को हुकूमत की काबिना में कोई जगह प्रदान नहीं की गई है।
इराक के शिया लीडरों और नागरिकों ने भी कदापि अमेरिका को अपना सच्चा दोस्त तसलीम नहीं किया, क्योंकि इतिहास के जख्म इतने गहरे हैं कि आसानी कदाचित भरते ही नहीं । 22 सितंबर सन् 1980 को शिया प्रभुत्व वाले राष्ट्र ईरान पर सद्दाम हुसैन ने अमेरिकन फौजी इमदाद के बलबूते पर आक्रमण कर दिया और फारस खाड़ी की जंग का आग़ाज किया। आठ वर्षों तक जारी रही इस जंग के दौर में सद्दाम हुसैन हुकूमत ने इराक के शियाओं पर भी बहुत सितम ढाए और दुनिया में मानव अधिकारों का अलंबदार अमेरिका एकदम खामोश बना रहा। तभी से शिया समुदाय अमेरिका को अपना दुश्मन मानने लगा। इराक में सुन्नियों से कहीं अधिक अमेरिकन फौज़ को शियाओं का खूनी प्रतिरोध झेलना पडा। आखिरकार संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 598 के तहत 20 अगस्त सन् 1988 ईरान और इराक के मध्य युद्धविराम हुआ।
सन् 1990 में तेल उत्पादक देश कुवैत पर सद्दाम द्वारा आधिपत्य करने के पश्चात अमेरिका और इराक के मध्य सीधी दुश्मनी प्रारम्भ हुई और अरब राष्ट्रों के बीच भी सद्दाम का इराक एकदम अलग-थलग पड़ गया। 1990 में सोवियत यूनियन के पराभव के पश्चात इराक का एक अंतर्राष्ट्रीय दोस्त पूर्णतः विश्व के नक्शे से समाप्त हो गया। सन् 1991 के युद्ध में सद्दाम की अमेरिका के हाथों निर्णायक शिकस्त हुई और उसे कुवैत को छोड़ना पडा। इन हालात में न्युक्लियर बम के निर्माण के झूठे बहाने की आड़ में अमेरिका ने सद्दाम के इराक पर आक्रमण कर दिया और हुकूमत को उखाड़ कर इराक पर कब्जा कर लिया। इराकियों ने अमेरिकन आधिपत्य का कदम दर कदम जंगी प्रतिरोध किया। अपनी मौजूदगी के आठ वर्षों के दौरान इराक में अमेरिकन फौज कदाचित अमनो चैन कायम नहीं कर सकी। अत्यंत दुश्वार हालात के मझंधार के भंवर में इराक का परित्याग करके अमेरिकन फौज चली गई। शिया समुदाय अक़सरियत के दम पर राजसत्ता पर कब्जा कायम कर अल्पसंख्यक सुन्नियों को निशाना बना सकता है।। गृहयुद्ध के लिए तशकील होते हुए हालात में अल कायदा जैसी आतंकवादी तंजीम के प्रभावी होने की संभावना अत्यंत प्रबल हो चली है। अपेक्षाकृत कमजोर पड़ गए सुन्नी समुदाय में धर्मान्ध आतंकवादी अलकायदा एक ताकतवर तंजीम के तौर पर तेजी के साथ उभर सकती है। बेहतर होता कि इराक में निष्पक्ष आम चुनाव कराने के पश्चात ही अमेरिकन फौज विदा होती और एक ताकतवर लोकतांत्रिक राष्ट्र के तौर पर इराक के सभी समुदाय अमनो चैन से तरक्की करते, किंतु बेहद खुदगर्ज राष्ट्र अमेरिका से यह उम्मीद करना व्यर्थ है । अमेरिका अपने निजे हितों की खातिर इराक़में दाखिल हुआ और अपने हितों को साधता हुआ वहां से विदा हो गया।
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