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न्‍याय व्‍यवस्‍था की दरकती रगें

WORDS OF PK ROY
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न्‍याय व्‍यवस्‍था की दरकती रगें

हमारे वतन को भयावह घिनौने अपराधों ने सबसे अधिक खोखला और बरबाद किया है। देश में अपराधों के अनेक आयाम रहे हैं। एक तरफ ऐसे अपराध हैं, जिन्‍हे प्राय: कत्‍ल, ड‍कैती, लूट, चोरी, ठगी, तस्‍करी, आतंकवाद, बालात्‍कार, व्‍याभिचार इत्‍यादि के तौर पर जाना जाता है। दूसरी तरफ अपराधों का अहम पहलू रहा है सपेदपोश अपराध, जिसके तहत राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्‍टाचार और अनाचार, टैक्‍स चोरी, कालाबाजारी आदि को शुमार किया जाता हैं। आजादी के दौर में अपराध का आंकडा़ उससे भी कहीं अधिक तेजी के साथ बढा़, जितनी तेजी के साथ देश की आबादी बढी़। यूं तो समस्‍त देश में ही अपराध के आंकडो़ं ने जबरदस्‍त छलांगें लगाई, किंतु उत्‍तर भारत ने तो इसने समूची दुनिया के रिकार्ड्स धवस्‍त कर दिखाए। बहुत से बड़े बुर्जग लोगों को निरंतर बिगड़ते हुए आपराधिक हालात ने नम आँखों और भरे हुए दिल से यह तक कहने के लिए विवश कर दिया कि इस स्‍वदेशी राज से तो अंग्रेजों का राज ही कहीं अधिक अच्‍छा था।

आम नागरिक के लिए ऐतिहासिक रूप से सरकार का सृजन ही उसकी सुरक्षा के लिए हुआ है। स्‍वाभाविक तौर पर आम नागरिकों को पुलिस और प्रशासन से उसकी हिफा़जत करने की उम्‍मीद होती है। आम नागरिकों के मध्‍य यह धारणा प्रबल होती जा रही है कि अपराध और राजनीति की अपवित्र मिलीभगत समूची स्थिति को बद से बदतर बना रही है। पुलिस और प्रशासन तो आखिरकार सत्‍तानशीन राजनेताओं का हुक्‍म बजाने के विवश है, अत: वह भी उनके साथ ही निकम्‍मा और भ्रष्‍ट्र हो गया। अंतत: अपराध नियंत्रण (क्राइम कंट्रोल) के प्रश्‍न पर उम्‍मीद की आखिरी किरण आमतौर पर न्‍यायपालिका को ही समझा जाता रहा।
जब से देश की न्‍यायपालिका के न्‍यायाधीषों के अनाचार और भ्रष्‍टाचार की खबरें मीडिया की सुर्खियां बन रही है। न्‍यायधीषों से जुडा़ गाजियाबाद का प्रोविडेंट कांड हो अथवा जस्टिस रामास्‍वामी एवं दिनकरण का मामला, जूडिशियरी अब बदनाम हो रही है। जनमानस के लिए उम्‍मीद की यह किरण भी गहन अंधकार में गर्क होती दिख रही है। न्‍यायपालिका वस्‍तुत: भारतीय संविधान का ऐसा प्रबल बुनियादी आधार स्‍तंभ है, जिस पर की राष्‍ट्र की समूची कानून व्‍यवस्‍था टिकी है। संसद (विधायिका) यदि कोई ऐसा कानून बनाती है जो संविधान के मूल ढांचे और उसकी आत्‍मा के विरूद्ध है तो सुप्रीम कोर्ट उसे असंवैधानिक (अल्‍ट्रावार्यस) करार दे कर उसे निरस्‍त कर सकता है।

आजकल न्‍यायपालिका की विश्‍वस्‍त्‍ता पर गहन संकट के काले बदरा छाए हुए हैं। समूचे देश के प्रत्‍येक कोने से न्‍यायपालिका को जवाबदेह बनाने के लिए जबरदस्त आवाजें उठ रही हैं। यह धारणा प्रबल हो रही है कि न्‍यायाधीश गण स्‍वयं को राष्‍ट्र के प्रति किसी प्रकार की जवाबदेही से विलग मानने लगे हैं। इसीलिए संभवतया कुछ एक माननीय न्‍यायाधीष गण बेलगाम होकर अनाचार और भ्रष्‍टाचार में लिप्‍त हो गए हैं। राष्‍ट्र ने सब कुछ बर्दाश्‍त कर लिया यह सोच समझकर कि सफेदपोश अपराधियों से लेकर दुर्दान्‍त आतंकवादियों की तक़दीर आखिरी फैसला तो न्‍यायपालिका लिख ही देगी। किंतु राष्‍ट्र के आम नागरिकों का इस यकी़न की बुनियाद ही दरक़ गई तो देश अराजकता की गर्त में डूब जाएगा।

पहले से ही अनावश्‍यक न्‍यायिक विलंब के कारणवश तकरीबन तीन करोड़ से अधिक केस निचली अदालतों में अटके हुए पडे़ हैं। हाईकोर्ट के हालात भी कदाचित अधिक अच्‍छे नहीं हैं, यहां भी बरसों से पेंडिग पडे़ हुए केसों की तादाद लाखों में पंहुच चुकी है। कितनी ही विशेषज्ञ कमेटियां बनी और उनकी विद्धतापूर्ण अनुशंसाएं सरकार के हवाले की गई। किंतु सत्‍तानशीन राजनेताओं ने कदाचित उन पर तव्‍वजों अता नहीं की। न्‍यायिक व्‍यवस्‍था में सुधारों की बेहद दरका़र रही है। हुकूमत के कथित आर्थिक सुधारों की समूची कवायद ही बेमानी साबित हो रही है। जब इन आर्थिक सुधारों को लागू करने वाली प्रशासनिक व्‍यवस्‍था में और न्‍यायिक व्‍यवस्‍था में आज के दौर की आवश्यकताओं के अनुरूप सुधार नहीं किए जाएगें तो कुछ भी वास्‍तविक परिणाम आने वाला नहीं है। इन बेहद आवश्‍यक सुधारों के आभाव में आर्थिक सुधारों का वास्‍तविक फायदा मुठ्ठीभर कारपोरेट सेक्‍टर अमीरजादों के खातों में चला गया।
विधि आयोग (लॉ कमीशन) की अनेक विस्‍तृत रिपोर्ट्स में न्‍यायिक विलंब के वस्‍तुगत कारणों को निरूपित किया जा चुका है। साथ ही इन कारणों को दूर करने के समुचित उपाय भी सुझाए गए। इन सुझावों के तहत कानूनों में व्‍यापक संशोधन, आर्थिक संसाधानों और स्रोतों का निवेश एवं संवहन। न्‍यायिक व्‍यवस्‍था के तहम कार्य करने वालो की समुचित जवाबदेही की अनुशंसा की गई है। मुख्‍य न्‍यायाधीषों के सम्‍मेलन में मालिमथ कमेटी तामिर की गई। जिसके द्वारा बाकायदा न्‍यायिक व्‍यवस्‍था में सुधारों के विशिष्‍ट उपाय सुझाए गए। इन तमाम अनुशंसाओं और सुझावों पर हुकूमत ने कोई अमल अंजाम नहीं दिया। क्‍या यह स्थिति राजनीतिक इच्‍छा शक्ति को मुकम्‍मल आभाव नहीं प्रदर्शित नहीं करती। यदि देश की हुकूमत के पास न्‍याय व्‍यवस्‍था के लिए भी वित्‍तीय संकट है और संसाधनों का आभाव है तो क्‍या फिर सरकार न्‍याय व्‍यवस्‍था के निजीकरण पर भी विचार करेगी।

1990 में लॉ कमीशन ने एक महत्‍वपूर्ण सुझाव पेश किया था कि न्‍यायपालिका के तमाम उच्‍च पदों पर न्‍यायाधीषों की नियुक्तियों पर राजनेताओं के मनमाने हस्‍तक्षेप को खत्‍म किया जाना चाहिए ताकि न्‍याय पालिका के स्‍वतंत्र अस्‍तीत्‍व को बाकायदा कायम रखा जा सके। प्रशासनिक सेवाओं की तरह ही अखिल भारतीय न्‍यायिक सेवा के संस्‍थापन की अनुशंसा अनेक बार विभिन्‍न विधि आयागों द्वारा की जा चुकी है। जिस पर अभी तक हुकूमत ने अमल नहीं किया। न्‍यायिक पद बरसों बरस तक खाली पडे़ रहते हैं। यूपी हाईकोर्ट में ही 150 पदों में 70 पद खाली पडें हुए हैं। यही हालत सारे उत्‍तर भारत में विद्यमान है। वकीलो ने जंग ए आजादी के दौर में देश की कयादत की। देशबंधु सीआर दास, मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपतराय, मदनमोहन मालवीय, महात्‍मा गॉंधी, पं. नेहरू, गोविंदबल्‍लभ पंत, आसफअली, जैसे कितने ही वकील संघर्ष अग्रिम पांतों में रहे। आज भी देश भर में एडवोकेट्स सत्‍ता के उच्‍च पदों पर विराजमान हैं । पी चिदंबरम, वीरप्पा मोइली और कपिल सिब्‍बल जैसे काबिल वकील तो केंद्रीय मंत्रीमंडल में ही हैं। किंतु सरकार न्‍याय व्‍यवस्‍था में सकारात्‍मक बदलाव के प्रश्‍न पर बेहद निष्क्रिय बनी रही है। सुप्रीम कोर्ट तो 1994 में दिनेश त्रिवेदी के प्रख्‍यात केस में विस्‍तृत तौर पर दिशा निर्देश दे चुका है कि केंद्र सरकार को न्‍याय के प्रश्‍न पर प्रजिडेंशियल कमीशन बनाना चाहिए ताकि राजनीति और अपराध के निरंतर ताकतवर होते हुए भयावह गठबंधन को ध्‍वस्‍त किया जा सके।

केंद्रीय शासन को न्‍याय व्‍यवस्‍था के बुनियादी बदलाव के लिए गंभीर पहल शुरू करनी चाहिए। वक्‍त़ की जरूरत के मुताबिक यथा शीघ्र ही स्‍थायी ‘राष्‍ट्रीय विधि आयोग’ का गठन किया जाना चाहिए। केवल राष्‍ट्रीय विधि आयोग को ही हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के लिए काबिल न्‍यायाधीषों की नियुक्तियों का अधिकार होना चाहिए। न्‍यायाधीषों के नैतिक आचरण पर राष्‍ट्रीय विधि ही आयोग नज़रे रखेगा और उनको समुचित तौर पर संविधान और राष्‍ट्र के प्रति जवाबदेह बनाएगा। न्‍यायिक विलंब को रोकने के कारगर उपायों को लागू करने की जिम्‍मेदारी का निर्वहन राष्‍ट्रीय विधि आयोग करेगा। न्‍यायिक बिलंब पर रोक ही अपराधों को तेज गति से बढ़ने पर लगाम कस सकेगी। त्‍वरित न्‍याय बेहद आवश्‍यक है, अन्‍यथा देरी से हासिल होने वाले न्‍याय को कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है (जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड)। मीडिया और जनमानस को न्‍याय के महत्‍वपूर्ण पर सशक्‍त जनमत निर्मित करने का सशक्‍त प्रयास करना होगा ताकि अत्‍यंत सक्षम न्‍याय व्‍यवस्‍था का सृजन करने के लिए सरकार विवश हो जाए तभी भारत को नृशंस अपराध के पिशाच से मुक्ति मिलेगी।
प्रभात कुमार रॉय
पूर्व प्रशासनिक अधिकारी

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